Add To collaction

उपन्यास-गोदान-मुंशी प्रेमचंद


गोदान


राय साहब को ख़बर मिली कि इलाक़े में एक वारदात हो गयी है और होरी से गाँव के पंचों ने जुरमाना वसूल कर लिया है, तो फ़ौरन नोखेराम को बुलाकर जवाब-तलब किया -- क्यों उन्हें, इसकी इत्तला नहीं दी गयी। ऐसे नमकहराम दग़ाबाज़ आदमी के लिए उनके दरबार में जगह नहीं है। नोखेराम ने इतनी गालियाँ खायीं, तो ज़रा गर्म होकर बोले -- मैं अकेला थोड़ा ही था। गाँव के और पंच भी तो थे। मैं अकेला क्या कर लेता। राय साहब ने उनकी तोंद की तरफ़ भाले-जैसी नुकीली दृष्टि से देखा -- मत बको जी! तुम्हें उसी वक़्त कहना चाहिए था, जब तक सरकार को इत्तला न हो जाय, मैं पंचों को जुरमाना न वसूल करने दूँगा। पंचों को मेरे और मेरी रिआया के बीच में दख़ल देने का हक़ क्या है? इस डाँड़-बाँध के सिवा इलाक़े में और कौन-सी आमदनी है? वसूली सरकार के घर गयी। बक़ाया असामियों ने दबा लिया। तब मैं कहाँ जाऊँ? क्या खाऊँ, तुम्हारा सिर! यह लाखों रुपए साल का ख़र्च कहाँ से आये? खेद है कि दो पुश्तों से कारिन्दगीरी करने पर मुझे आज तुम्हें यह बात बतलानी पड़ती है। कितने रुपए वसूल हुए थे होरी से? नोखेराम ने सिटपिटा कर कहा -- अस्सी रुपए! ' नक़द? ' ' नक़द उसके पास कहाँ थे हुज़ूर! कुछ अनाज दिया, बाक़ी में अपना घर लिख दिया। ' राय साहब ने स्वार्थ का पक्ष छोड़कर होरी का पक्ष लिया -- अच्छा तो आपने और बगुलाभगत पंचों ने मिलकर मेरे एक मातबर असामी को तबाह कर दिया। मैं पूछता हूँ, तुम लोगों को क्या हक़ था कि मेरे इलाक़े में मुझे इत्तला दिये बग़ैर मेरे असामी से जुरमाना वसूल करते। इसी बात पर अगर मैं चाहूँ, तो आपको और उस जालिये पटवारी और उस धूर्त पण्डित को सात-सात साल के लिए जेल भिजवा सकता हूँ। आपने समझ लिया कि आप ही इलाक़े के बादशाह हैं। मैं कहे देता हूँ, आज शाम तक जुरमाने की पूरी रक़म मेरे पास पहुँच जाय; वरना बुरा होगा। मैं एक-एक से चक्की पिसवाकर छोड़ूँगा। जाइए, हाँ, होरी को और उसके लड़के को मेरे पास भेज दीजिएगा। नोखेराम ने दबी ज़बान से कहा -- उसका लड़का तो गाँव छोड़कर भाग गया। जिस रात को यह वारदात हुई, उसी रात को भागा। राय साहब ने रोष से कहा -- झूठ मत बोलो। तुम्हें मालूम है, झूठ से मेरे बदन में आग लग जाती है। मैंने आज तक कभी नहीं सुना कि कोई युवक अपनी प्रेमिका को उसके घर से लाकर फिर ख़ुद भाग जाय। अगर उसे भागना ही होता, तो वह उस लड़की को लाता क्यों? तुम लोगों की इसमें भी ज़रूर कोई शरारत है। तुम गंगा में डूबकर भी अपनी सफ़ाई दो, तो मानने का नहीं। तुम लोगों ने अपने समाज की प्यारी मर्यादा की रक्षा के लिए उसे धमकाया होगा। बेचारा भाग न जाता, तो क्या करता! नोखेराम इसका प्रतिवाद न कर सके। मालिक जो कुछ कहें वह ठीक है। वह यह भी न कह सके कि आप ख़ुद चलकर झूठ-सच की जाँच कर लें। बड़े आदमियों का क्रोध पूरा समर्पण चाहता है। अपने ख़िलाफ़ एक शब्द भी नहीं सुन सकता। पंचों ने राय साहब का यह फ़ैसला सुना, तो नशा हिरन हो गया। अनाज तो अभी तक ज्यों का त्यों पड़ा था; पर रुपए तो कब के ग़ायब हो गये। होरी का मकान रेहन लिखा गया था; पर उस मकान को देहात में कौन पूछता था। जैसे हिन्दू स्त्री पति के साथ घर की स्वामिनी है, और पति त्याग दे, तो कहीं की नहीं रहती, उसी तरह यह घर होरी के लिए लाख रुपए का है; पर उसकी असली क़ीमत कुछ भी नहीं। और इधर राय साहब बिना रुपए लिए मानने के नहीं। यही होरी जाकर रो आया होगा। पटेश्वरीलाल सबसे ज़्यादा भयभीत थे। उनकी तो नौकरी ही चली जायगी। चारों सज्जन इस गहन समस्या पर विचार कर रहे थे, पर किसी की अक्ल काम न करती थी। एक दूसरे पर दोष रखता था। फिर ख़ूब झगड़ा हुआ। पटेश्वरी ने अपनी लम्बी शंकाशील गर्दन हिलाकर कहा -- मैं मना करता था कि होरी के विषय में हमें चुप्पी साधकर रह जाना चाहिए। गाय के मामले में सबको तावान देना पड़ा। इस मामले में तावान ही से गला न छूटेगा, नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा; मगर तुम लोगों को रुपए की पड़ी थी। निकालो बीस-बीस रुपए। अब भी कुशल है। कहीं राय साहब ने रपट कर दी, तो सब जने बँध जाओगे। दातादीन ने ब्रह्मतेज दिखाकर कहा -- मेरे पास बीस रुपए की जगह बीस पैसे भी नहीं हैं। ब्राहमणों को भोज दिया गया, होम हुआ। क्या इसमें कुछ ख़रच ही नहीं हुआ? राय साहब की हिम्मत है कि मुझे जेल ले जायँ? ब्रह्म बनकर घर का घर मिटा दूँगा। अभी उन्हें किसी ब्राह्मण से पाला नहीं पड़ा। झिंगुरीसिंह ने भी कुछ इसी आशय के शब्द कहे। वह राय साहब के नौकर नहीं हैं। उन्होंने होरी को मारा नहीं, पीटा नहीं, कोई दबाव नहीं डाला। होरी अगर प्रायिश्चत करना चाहता था, तो उन्होंने इसका अवसर दिया। इसके लिए कोई उन पर अपराध नहीं लगा सकता; मगर नोखेराम की गर्दन इतनी आसानी से न छूट सकती थी। यहाँ मज़े से बैठे राज करते थे। वेतन तो दस रुपए से ज़्यादा न था; पर एक हज़ार साल की ऊपर की आमदनी थी, सैकड़ों आदमियों पर हुकूमत, चार-चार प्यादे हाज़िर, बेगार में सारा काम हो जाता था, थानेदार तक कुरसी देते थे, यह चैन उन्हें और कहाँ था! और पटेश्वरी तो नौकरी के बदौलत महाजन बने हुए थे। कहाँ जा सकते थे? दो-तीन दिन इसी चिन्ता में पड़े रहे कि कैसे इस विपित्त से निकलें। आख़िर उन्हें एक मार्ग सूझ ही गया। कभी-कभी कचहरी में उन्हें दैनिक ' बिजली ' देखने को मिल जाती थी। यदि एक गुमनाम पत्र उसके सम्पादक की सेवा में भेज दिया जाय कि राय साहब किस तरह असामियों से जुरमाना वसूल करते हैं तो बचा को लेने के देने पड़ जायँ। नोखेराम भी सहमत हो गये। दोनों ने मिलकर किसी तरह एक पत्र लिखा और रजिस्टरी भेज दिया। सम्पादक ओंकारनाथ तो ऐसे पत्रों की ताक में रहते थे। पत्र पाते ही तुरन्त राय साहब को सूचना दी। उन्हें एक ऐसा समाचार मिला है, जिस पर विश्वास करने की उनकी इच्छा नहीं होती; पर संवाददाता ने ऐसे प्रमाण दिये कि सहसा अविश्वास भी नहीं किया जा सकता। क्या यह सच है कि राय साहब ने अपने इलाक़े के एक असामी से अस्सी रुपए तावान इसलिए वसूल किये कि उसके पुत्र ने एक विधवा को घर में डाल लिया था? सम्पादक का कर्तव्य उन्हें मज़बूर करता है कि वह मुआमले की जाँच करें और जनता के हितार्थ उसे प्रकाशित कर दें। राय साहब इस विषय में जो कुछ कहना चाहें, सम्पादक जी उसे भी प्रकाशित कर देंगे। सम्पादकजी दिल से चाहते हैं कि यह ख़बर गलत हो; लेकिन उसमें कुछ भी सत्य हुआ, तो वह उसे प्रकाश में लाने के लिए विवश हो जायँगे। मैत्री उन्हें कर्तव्य-पथ से नहीं हटा सकती। राय साहब ने यह सूचना पायी, तो सिर पीट लिया। पहले तो उनकी ऐसी उत्तेजना हुई कि जाकर ओंकारनाथ को गिनकर पचास हंटर जमायें और कह दें, जहाँ वह पत्र छापना वहाँ यह समाचार भी छाप देना; लेकिन इसका परिणाम सोचकर मन को शान्त किया और तुरन्त उनसे मिलने चले। अगर देर की, और ओंकारनाथ ने वह संवाद छाप दिया, तो उनके सारे यश में कालिमा पुत जायगी। ओंकारनाथ सैर करके लौटे थे और आज के पत्र के लिए सम्पादकीय लेख लिखने की चिन्ता में बैठे हुए थे; पर मन पक्षी की भाँति अभी उड़ा-उड़ा फिरता था। उनकी धर्मपत्नी ने रात में उन्हें कुछ ऐसी बातें कह डाली थीं जो अभी तक काँटों की तरह चुभ रही थीं। उन्हें कोई दरिद्र कह ले, अभागा कह ले, बुद्धू कह ले, वह ज़रा भी बुरा न मानते थे; लेकिन यह कहना कि उनमें पुरुषत्व नहीं है, यह उनके लिए असह्य था। और फिर अपनी पत्नी को यह कहने का क्या हक़ है? उससे तो यह आशा की जाती है कि कोई इस तरह का आक्षेप करे, तो उसका मुँह बन्द कर दे। बेशक वह ऐसी ख़बरें नहीं छापते, ऐसी टिप्पणियाँ नहीं करते कि सिर पर कोई आफ़त आ जाय। फूँक-फूँककर क़दम रखते हैं। इन काले कानूनों के युग में वह और कर ही क्या सकते हैं; मगर वह क्यों साँप के बिल में हाथ नहीं डालते? इसीलिए तो कि उनके घरवालों को कष्ट न उठाने पड़े। और उनकी सहिष्णुता का उन्हें यह पुरस्कार मिल रहा है? क्या अँधेर है! उनके पास रुपए नहीं हैं, तो बनारसी साड़ी कैसे मँगा दें? डाक्टर सेठ और प्रोफ़ेसर भाटिया और न जाने किस-किस की स्त्रियाँ बनारसी साड़ी पहनती हैं, तो वह क्या करें? क्यों उनकी पत्नी इन साड़ीवालियों को अपनी खद्दर की साड़ी से लज्जित नहीं करती? उनकी ख़ुद तो यह आदत है कि किसी बड़े आदमी से मिलने जाते हैं, तो मोटे से मोटे कपड़े पहन लेते हैं और कुछ कोई आलोचना करे तो उसका मुँहतोड़ जवाब देने कोतैयार रहते हैं

   1
0 Comments